Shubh Krishna Janmashtami

 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:। 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ 


इस श्लोक का अर्थ है: हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म ग्लानि यानी उसका लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं (श्रीकृष्ण) धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।



                                        कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
                                       मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।


भावार्थ: श्रीकृष्ण ने कहा कि हे अर्जुन, कर्म करना तुम्हारा अधिकार है, फल की इच्छा करने का तुम्हारा अधिकार नहीं। कर्म करना और फल की इच्छा न करना, अर्थात फल की इच्छा किए बिना कर्म करना, क्योंकि मेरा काम फल देना है।


                                        गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्‌।
                                        प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्‌।।



भावार्थ: श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ, इस सारे जगत् में प्राप्त करनेवाला, सबका पालनहार, सब लोकों का अधिपति, अच्छे-बुरे का द्रष्टा, बदला लेने वाला, सबका धाम, समस्त सृष्टि और विनाश का कारण, मैं भी सबका कारण हूं। धन और नाश।


                                         क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
                                       स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।


भावार्थ: श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन क्रोध के कारण मन दुर्बल हो जाता है और स्मरण शक्ति बन्द हो जाती है। इस प्रकार बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश से मनुष्य स्वयं भी नष्ट हो जाता है।





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